हुजूर, आपसे अब यहाँ उम्र का गुजर नहीं होता,
कुछ मिले हमें भी अब की यूँ तन्हा इसारा नहीं होता।
ढलें हैं चेहरे ही बस, मंसूबें अब भी जवानी की मौजों में हैं,
यूँ घूँघट में अब सब कुछ मुझसे बांधा नहीं जाता।
कब तक आईना दिखलाये मुझे भंवर मेरी योवन का,
अब आँचल का भार यूँ बक्षों पे उठाया नहीं जाता।
परमीत सिंह धुरंधर