मैं धरती पे नहीं आया हूँ, मिटटी में बस मिल जाने को,
धरती का सीना फाड़ कर, कोई फसल खिला जाऊँगा।
बादल, दरिया, सब भले बैरी बन जाएँ,
तब भी फूल न सही, बबूल ही बसा जाऊँगा।
दर्जनों की भीड़ बैठती है बस शिकायतें करने को,
मैं तन्हा ही सही अपनी राहों में, पर एक भीड़ लगा जाऊँगा।
बहुत दूर तक चला हूँ, तन्हाई को ढ़ोते-ढ़ोते,
जब भी बैठूंगा कहीं, इनको सुलगा जाऊँगा।
परमीत सिंह धुरंधर