महबूब मेरे,
मुझे कुछ तो चैन दे दे.
बैचैन सी हैं जिंदगी,
इसे कभी तो आराम दे दे.
तन्हाइयों में जो हैं,
ये सब कुछ बिखरा हुआ.
इन्हें कभी तो समेट कर,
अपनी संदूक में कहीं छुपा ले.
जिंदगी की उलझने मेरी,
मुझसे सुलझती ही नहीं।
तू कभी दूर से ही सही मगर,
अपनी नजरों का एक सहारा तो दे दे.
प्यासा सावन क्या बरसे किसी पे?
तू उसे अपनी जुल्फों की कुछ बुँदे दे दे.
परमीत सिंह धुरंधर