मेरी मंजिलें,
हैं मुझे ही खफा.
जाने जिंदगी,
ये कैसा इम्तिहाँ?
अकेला, तन्हा,
चाहे दिन हो, या रात.
मुश्किलों में हैं,
हर एक साँस।
मेरी ख्वाइशें,
सब मुझसे ही खफा.
जाने जिंदगी,
ये कैसा इम्तिहाँ?
मिलने को कोई,
माशूक नहीं।
खाने को,
कुछ स्वादिष्ट नहीं।
मेरी हसरतें हैं,
मुझसे ही खफा.
जाने जिंदगी,
ये कैसा इम्तिहाँ?
परमीत सिंह धुरंधर