मेरे इश्क़ को,
एक समंदर ना मिल सका.
उनकी लहरों को कई,
किनारे मिल गए.
मेरे चरित्र का हनन करने वालो,
ज़रा ठहरो।
मेरी हाथों में भी,
इतिहास के कई पन्ने है आ गए.
तुम जो कहते हो,
की ये दो लोगो के बीच की बात है.
मैं नहीं मानता उसे,
जब सुलगती, सिसकती, सुबकती,
अपने जिस्म पे जख्म लेकर।
तुम्हारे चार दीवारों की औरत,
सड़क पे आ जाय.
तुम बजा सकते हो,
ऐसे ना मर्दों की चमक पे ताली।
क्यों की ऐसे परुषों की प्रधानता में ही,
अहिल्या को पाषाण से नारी बनने में,
कई साल लग गए.
परमीत सिंह धुरंधर