बस ओठों से गाली ही नहीं देती,
स्वाद भी तो चखाती हूँ,
जिसके लिए देव, दानव, ऋषि – मुनि,
सब तरसते हैं.
ओठों से सिर्फ सुनाती ही नहीं हूँ न,
पिलाती भी हूँ न वो रस,
जिसके लिए देव कर्तव्य,
तपस्वी तपस्या भूल जाते हैं,
परवाने मिट जाते हैं.
ओंठों से सिर्फ मांगती ही नहीं,
देती भी तो हूँ वो अमृत,
जिसके लिए जीवन की मिरीचिका,
में भटकते रहते हैं, और जिसके लिए,
घर – परिवार भी छूट जाते हैं.
परमीत सिंह धुरंधर