ये समुन्दर भी मेरे थे, ये लहरें भी मेरी थी,
ऐसा जोर था मेरा की ये हवाएँ तक मेरी थी.
एक नदिया आकर मिली इन किनारों से,
और सब कुछ बिखर गया.
ये आसमा भी मेरा था, ये सितारे भी मेरे थे,
एक चाँद कहीं से निकल आया,
इन सरहदों के आँगन में,
और फिर सब कुछ बिखर गया.
ये उपवन भी मेरा था, ये मधुवन भी मेरा था,
ये भौरें भी सब मेरे थे.
एक कलि कहीं से खिल गयीं यहाँ,
और फिर सब कुछ बिखर गया.
ये खेत, ये खलिहान, ये बाग़,
सब कुछ दूर – दूर तक मेरा था.
एक डोली उतरी कहीं से,
आकर इस चौखट पे.
और चूल्हा तक बंट गया.
परमीत सिंह धुरंधर