कभी रिंकू मिली,
कभी पिंकी मिली।
फिर भी बस नहीं पाया,
घर प्यार का.
उनकी भी कोसिस थी,
कोई मिल जाए उन्हें,
लल्लू काठ का.
एक तो मैं बिहारी,
उसपे से खाटी,
देखने – मिलने में गवार सा.
जल्दी समझ जाती थी वो,
भविष्य नहीं है,
अपने इस साथ का.
परमीत सिंह धुरंधर