शहर का शहर है जल रहा,
हुस्न उसका, प्रबल इतना।
क्या वसुधा?
उसकी जुल्फों के लपटों से,
अम्बर तक झुलस रहा.
तारे -सितारे सब टूट रहे,
चाँद भी उनका हो गया है दुर्बल सा.
कोने -कोने में नभ के अमावस्या फ़ैल रहा,
रूप उसका, प्रखर इतना।
परमीत सिंह धुरंधर