कुछ नए तरीके से सील रहीं हैं सलवारें उनकी,
कुछ दर्जी का दोष है, कुछ उनकी जवानी का.
यूँ ही नहीं निकलते हैं लोग गलियों में,
कुछ गर्मी का असर है, कुछ उनकी जवानी का.
और कब तक बांधें वो भी लज्जावस अपनी साँसों को,
कुछ मेरी बाहों का असर है, कुछ उसकी जवानी का.
परमीत सिंह धुरंधर