तेरी गहरी -गहरी आँखों में,
मैं गहन – गहन अध्ययन करता हूँ.
तेरे गहन – गहन इन नयनों का,
मैं गहरा अध्ययन करता हूँ.
तेरे सुर से इन साँसों में,
मैं मदिरा का अनुभव करता हूँ.
तेरी कमर की इस लचकता पे,
मैं भ्रमर सा गुंजन करता हूँ.
कभी आ जा भी तू,
साक्षात मेरे उपवन में,
नित रात्रि में स्वपन में,
तेरा अभिनन्दन करता हूँ.
पुष्प सी पुलकित हो,
मृग सी बिचरती है धरा पे,
तेरे यौवन के त्वरित – तरंगों से,
मैं भगीरथ सा विचलित रहता हूँ.
धनुष की प्रतयंचा सी,
तू कसी- कसी सी,
मैं राम सा तुझे कसने को,
हर पल में प्रबल रहता हूँ.
घनघोर घटा सी जुल्फे तेरी,
चन्द्रमुख को ढक लेती है जब,
चकोर सा व्याकुल -विचलित,
मैं तेरी आभा को तड़पता हूँ.
तेरी गहरी -गहरी आँखों में,
मैं गहन – गहन अध्ययन करता हूँ.
तेरे गहन – गहन इन नयनों का,
मैं गहरा अध्ययन करता हूँ.
परमीत सिंह धुरंधर