काँटों ने कब रोका है तुम्हे?
गुलाब को चूमने से.
मगर चुभ जाए तुम्हे तो समझो,
की तुम बहुत असावधान हो राहों में.
बाधाएँ तो निरंतर हैं,
पल – पल में जीवन के.
प्रसव-पीड़ा से नारी को,
कब रोका है मौत के भय ने?
उसी माँ के दूध से तुम हो,
फिर भय कैसा इन प्राणों का?
और कैसे छोड़ दूँ माँ को अपने,
रूप – रस में फंसकर,
बेवफा मेनकाओं के.
परमीत सिंह धुरंधर