माँ
औलादें पाल ही लेतीं हैं
चाहे परिस्तिथियाँ कैसे भी हो.
माँ चाहे बूढी हो
झुकी कमर हो
हड्डियों में बुढ़ापे का दर्द
और ठण्ड का असर हो
पर खिसक – खिसक कर
चूल्हे में आग डाल ही देती है.
माँ
औलादें पाल ही लेतीं है.
सुख से, दुःख से
हंस कर या रो कर
अपने – पराये सबसे लड़कर
माँ अकेले, जूझते हुए
वक्त के हर सितम को सहकर
अपने बच्चों को बड़ा कर ही देती है.
माँ
औलादें पाल ही लेतीं हैं.
जब सबकी आँखों में निंद्रा का यौवन हो
और नशों में आलस्य की मदिरा हो
सूरज भी जब ना निकल सके
उन गहन अंधेरो को चीरकर
थकान से टूटते जिस्म में
माँ स्फूर्ति भर ही लेती है.
माँ
औलादें पाल ही लेतीं हैं.
अपनी भूख दबाकर
अपनी अभिलाषाओं का दमन कर
मैली – कुचैली, फटी साड़ी में भी मुस्कराकर
चार दीवारों में बंध कर
सिमटी जिंदगी के बावजूद
हर पल उल्लास से भरकर
अपने बच्चों के लिए
रात – दिन, दोपहर
माँ रोटी सेंक ही देती है.
माँ
औलादें पाल ही लेतीं हैं.
परमीत सिंह धुरंधर