तिमिर के शिविर में चंद्र को परास्त करे,
उषा की लाली को आरम्भ में, नभ में ही अस्त करे.
चक्षुओं के बाण से हर मान का मर्दन करे.
विकट जिसका रूप नहीं, विकट उसकी चाल रे,
कोमल – कोमल अंगों पे, विशाल नयन कटार से.
काले -काले केसूओं के मध्य तांडव करे नितम्ब रे.
विकसित उन्नत वक्षों से विश्व को विस्मित करे.
पुलकित अपने अधरों से हिमालय को कम्पित करे.
हिम से ढके आँगन के अन्तःमन को पावक सा प्रष्फुटित करे.
नित यौवन जिसका चढ़ रहा समुन्द्र के ज्वार सा,
अंग – अंग खिल रहा पूर्णिमा के चाँद सा.
शीतल – मधुर – चंचल पवन सा,
नस – नस को काम से ग्रसित और स्पंदित करे.
परमीत सिंह धुरंधर