एक हाथ की दूरी हो,
साँसों से मेरे तुम महकी हो.
दरिया बनके मुझे डुबोने को,
अंग-अंग से तुम मचली हो.
क्या शर्म और हया?
कुल – मर्यादा सब भूल कर,
यौवन की मदिरा में बहकी हो.
परमीत सिंह धुरंधर
एक हाथ की दूरी हो,
साँसों से मेरे तुम महकी हो.
दरिया बनके मुझे डुबोने को,
अंग-अंग से तुम मचली हो.
क्या शर्म और हया?
कुल – मर्यादा सब भूल कर,
यौवन की मदिरा में बहकी हो.
परमीत सिंह धुरंधर