धीरे – धीरे
ढो के ले गयी
मेरे घर का कोना – कोना।
हल्दी – धनिया, सिलवट – लोढ़ा
बाबू जी का गमछा,
और माई का बिछोना।
इश्क़ बड़ा महँगा है दोस्तों
जिसने इस बाबूसाहेब को
सड़क पे ला दिया।
गजब की शौक़ीन थी मेरी बाहों का
हाँ, जब मैं अमीर था.
जिसकी आँखों के एक – एक रंग पे
मैंने उसकी अंगों पे
दूध, दही, घी, बतासा
अदौरी – तिलोड़ी, पकोड़ी
आंटा, सतुआ, चिउरा
अरे अपने पूर्वजों के एक – एक
संचित धन का भोग लगा दिया।
परमीत सिंह धुरंधर