हिन्द की धरती पे जब उलझनों का दौर था
अस्त था सूरज और तिमिर घनघोर था.
सरहदों से अंदर तक आतंक का जोर था
अधर्म बलवान और धर्म कमजोर था.
एक नन्हे से बालक ने कहा पिता से
भय से बड़ा न कोई रोग है, न रोग था.
आतंक का मुकाबला अहिंसा तो नहीं
भय अगर व्याप्त है
पर्यावरण में किंचित भी
तो उसका समाधान मंत्रोचार और दया तो नहीं।
बलिदानों की इस धरती पर
यूँ समर्पण बस प्राणों के मोह में
एक कोढ़ है और कोढ़ था.
परमीत सिंह धुरंधर