मैं अपनी उमिद्दों का समंदर रखता हूँ
तन्हा हूँ मगर मैं यही शौक रखता हूँ.
शहनाइयाँ तो कितनी हैं बाजार में
मगर मैं लबों पे अपने बस बांसुरी ही रखता हूँ.
ना उम्मीदी के इस दौर में जो ज़िंदा है वही राजपूत
तख़्त ना सही पर रगों में वही लहू रखता हूँ.
वो गैरों के बाहों में झूल गयीं जाने किन ख्वाइशों के तले
मैं आज ब्रह्माण्ड के कण – कण पे अपनी शौहरत रखता हूँ.
परमीत सिंह धुरंधर