तन्हाइयों में उर्वसी बनकर
अपने तीक्ष्ण नैनों से ह्रदय में
तरंगे उठाने वाली
विरह की तपिश में मुझे झोंककर
संसार के सम्मुख
मेनका बनकर मुझसे मुख मोड़ लेती है.
जो कल तक प्रेम, धर्म, कर्तव्य, नारी – सम्मान
का बोध कराती, ज्ञान देती
वो स्वर्ग के सुख के लिए
मातृत्व, स्त्रीत्व और गृहस्थ धर्म को त्याग कर
इंद्रा की सभा में नृत्यांगना बनने का
प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है.
परमीत सिंह धुरंधर