दही पर के छाली छील के
बोले रे सैयां ढील के.
मैं हूँ खिलाड़ी, पक्का बिहारी
चराता हूँ भैंस, बैठ भैंस की पीठ पे.
उठा के घूँघट चट सखी
सवार हो गयी छाती पे.
पिसती हूँ मन भर गेंहूँ मेरे राजा
जांत पे एक ही हाथ से.
दही पर के छाली छील के
खिलाती थी माँ सीधे खाट पे.
छोड़ो रानी मायके की कहानी
अब आ गयी हो मेरे गांव में.
यहाँ का मुसल, यहाँ का जांता
भारी पड़े हर पहलवान पे.
सुनो राजा, मैं हूँ कुवारी छपरा से
चढ़ी डोली,
जिसके कहार थे बड़े – बड़े उस्ताद रे.
परमीत सिंह धुरंधर