बेचैन सी जिंदगी Crassa की
चैन की कोई उम्मीद नहीं।
बंध चुका हूँ चारो ओर से ऐसे
की इस चक्रव्यूह का कोई अंत नहीं।
किसे पुकारू, किसकी और देखूं?
किसी दिशा का ध्यान नहीं
किसी क्षण विश्राम नहीं।
आराध्या मेरे कैलाश पे
पर मैं भगीरथ नहीं।
राम तो मेरे अंदर हैं
पर मैं भक्त हनुमान नहीं।
अतः परमार्थ होगा पिता के नाम पे
अभिमन्यु को परिणाम की चिंता नहीं।
यूँ बाँध दूंगा काल को समर में
की पिता के मनो-मस्तिक पे
फिर कोई भार नहीं।
परमीत सिंह धुरंधर