जिसको भी आता है घोंषला बनाना
इस शहर में उसी का घोंषला नहीं है.
कैसे सवारोगे किस्मत को Crassa?
किस्मत में बस यही एक चीज़ लिखी नहीं है.
उड़ रहे हैं बहुत परिंदे आसमा में
मगर दूर – दूर तक इनका कोई आशियाना नहीं है.
संभालना सिख लो गलियों में ही
ये शहर देता दोबारा मौका नहीं है.
उजड़ा है मेरा गुलिस्ता यहीं पे कभी
मगर शहर ये अब भी शर्मिन्दा नहीं है.
परमीत सिंह धुरंधर