अजीब दास्ताँ है ये, खुद हमारे लिए
ये शहर मेरा नहीं तो मुस्करायें किसके लिए?
दफ़न कर चूका हूँ जो ख्वाइशें कहीं
उन्हें सुलगाऊँ भी तो अब किसके लिए?
वो छोड़ गयीं मुझे एक ही रात के बाद
अब घर बसाऊं भी तो किसके लिए?
यादों का गठबंधन तोड़े कैसे पिता?
जब तुम ही नहीं तो जीयें किसके लिए?
खुदा भी जानता है की हम है अकेले
खुशियाँ बाटूँ भी तो किसके लिए?
जमाने से दुश्मनी है मेरी सदियों से
जमाने से बना के रखूं भी तो किसके लिए?
मुबारक हो हिन्द, जिन्हे मंदिर – मस्जिद चाहिए
मैं सजदा करूँ भी तो अब किसके लिए?
परमीत सिंह धुरंधर