वो लाख चाहकर भी छिटक न सकीं मेरी बाहों से
लोक-लज्जा, शर्म-हया, सबके टूटने का
यही तो एक मंजर था.
बंद आँखों में कितने चिराग जल उठें?
उनके मशाल बनने का यही तो एक मंजर था.
पिघल रही थी बरसो से जमी वो बर्फ
अलग – अलग इन धाराओं के मिलकर बहने का
यही तो एक मंजर था.
गली – गली से निकले,
भांति – भांति, अलग जाती के लोग
सत्ता के खिलाफ मिलकर लड़ने का
यही तो एक मंजर था.