राजा, आँखों में तेरे प्यास बहुत है
डरता है दिल, शर्म उतारूं कैसे?
तू लगता है शातिर, चालक बहुत है
घूँघट मैं अपना उठाऊं कैसे?
राजा, तू है एक निर्दयी, तुझमे अहंकार बहुत है
अपने वक्षों से आँचल सरकाऊ कैसे?
तेरे नजर है बस जिस्म पे, जिसे पाना आसान बहुत है
ऐसे हरजाई संग घर बसाऊं कैसे?
परमीत सिंह धुरंधर