शहर की हर धुप में
जलन का अहसास है.
सुबह की किरण भी
रुलाती, तड़पाती और
तोड़ती हर आस है.
रात को तकिये पे
नींदें मेरी, पूछती अब
मुझसे ही अनगिनित सवाल है.
प्यास इस कदर आकर
ओठों पे बस गयी है मेरे
की कंठ को बस
हलाहल का ही इंतज़ार है.
परमीत सिंह धुरंधर