रक्त के हर बून्द की तुम बन गयी हो प्यास
तुम मिलती हो तो लगता है वक्त भी ख़ास.
तो मत रहो यूँ दूर – दूर, शर्म में बंध कर
आवो, मैं बेशर्म बनके तुम्हारी बेड़िया तोड़ दूँ।
मौन हो तुम पर मैं जानता हूँ
तुम्हारे ख़्वाबों में भी उड़ते हैं कई पंक्षी
तुम कहो तो आज तुम्हारे पंक्षियों को
मैं भी थोड़ा अपना दाना डाल दूँ.
तुम्हारे मुख पे घूँघट और ये झुके नयन
कब से बन गए हैं ये तुम्हारे बंधन?
ये तो मुझको रिझाने के तुम्हारे श्रृंगार हैं
तुम कहो तो आज थोड़ा
तुम्हारे अंगों का मैं श्रृंगार करूँ।
परमीत सिंह धुरंधर