वो मुस्कराती रहीं
मैं उन्हें हसाता रहा.
उनके नैनों से नैंना
मिलाता रहा.
वो बेवफा थी मगर
मैं भी बिहारी था.
उनको उनकी ही
नाच में नचाता रहा.
वो इठलाती थी
सखियों के बीच में.
कहती थी की
घुमा रही हैं मुझे।
वो बेवफा थी मगर
मैं भी बिहारी था.
उनके पीछे -पीछे
जाता रहा.
जब – जब सत्ता का उन्हें
चढ़ा गरूर।
विद्रोह का झंडा
उठता रहा.
यूँ ही नहीं है सर पे
ताज छपरा का.
अरे बुढ़ापे में भी
विगुल मैं वजाता रहा.
परमीत सिंह धुरंधर