जब गुजरता हूँ शहर के करीब से
तो बहुत याद आती हैं वो खाटों की लोरियाँ।
मैं तन्हा ही रह गया शहर में घुल के
इनसे अच्छी तो थी वो चुभती बालियाँ।
कौन कहता हैं की जिंदगी खुद की हाथों से संवरती हैं?
मैं भी जानने लगा हूँ कौन खींचता हैं ये डोरियाँ?
परमीत सिंह धुरंधर