कब तक बहलाओगी किताबों से खुद को?
वो बचपन का दौर था, ये जवानी का दौर है.
आँखों के शर्म को पलकों पे रहने दो
वो घूँघट का दौर था, ये निगाहों का दौर है.
परमीत सिंह धुरंधर
कब तक बहलाओगी किताबों से खुद को?
वो बचपन का दौर था, ये जवानी का दौर है.
आँखों के शर्म को पलकों पे रहने दो
वो घूँघट का दौर था, ये निगाहों का दौर है.
परमीत सिंह धुरंधर