वो मित्र बनें
वो शत्रु बनें
वो प्रेमी बनें
वो भाई बनें
दिन के धागे
और रातों सुई बनें।
एक हम ही हैं
जो कुछ ना बन सके।
वो दिल बनें
वो धड़कन बनें
वो दिमाग बनें
वो नजर, तंत्रिका
रुधिर और कोशिका बनें।
वो रसोई का आंटा
आंटे की लोई
और लोई की रोटी बनें।
एक हम ही हैं
जो कुछ भी ना बन सके.
वो किताब बनें
वो कॉपी बनें
वो कलम बनें
सीने से चिपक – चिपक कर
वो दुप्पट्टा
फिर रजाई
और फिर रजाई की रुई बनें।
एक हम ही हैं
जो कुछ बी ना बन सके.
परमीत सिंह धुरंधर