प्रेम कितना विवश कर देता है
दो नयनों से ह्रदय को हर के.
वो तो रख लेती हैं उपवास
हम रह जाते हैं बस एक चाँद बन के.
वो चलती हैं सज के – संवर के
बाँध के साड़ी अपनी कमर से.
हम रह जाते हैं बस
उनके माथे की एक बिंदी बन के.
परमीत सिंह धुरंधर
प्रेम कितना विवश कर देता है
दो नयनों से ह्रदय को हर के.
वो तो रख लेती हैं उपवास
हम रह जाते हैं बस एक चाँद बन के.
वो चलती हैं सज के – संवर के
बाँध के साड़ी अपनी कमर से.
हम रह जाते हैं बस
उनके माथे की एक बिंदी बन के.
परमीत सिंह धुरंधर