बस्ती गैरों की
रोटी अपनों की
गरीबी कट जाती है
यूँ ही ढँक-ढाँक के.
थोड़ी बच्चो की मस्ती में
थोड़ी बड़ों की बेरुखी में
गरीबी कट जाती है
यूँ ही खेल-खाल के.
अमीरी कब किसी की भी सगी रही?
दौलत से कब समंदर की प्यास मिटी?
यूँ ही सट -साट के, रूठ -राठ के
गरीबी कट जाती है एक खाट पे.
परमीत सिंह धुरंधर