जमाले-मुख का तेरे, तोड़ कुछ भी नहीं
उसपे से ये हाय, हया, बेजोड़ इनसे कुछ भी नहीं।
भटक रहे हैं सभी तेरे तिलिश्म में
रहे हैं जुदा – जुदा, पर मंजिल कुछ नहीं।
टूटे कितने तारे इस वफाये-मोहब्बत में
मगर इस रात की सहर कुछ भी नहीं।
परमीत सिंह धुरंधर
जमाले-मुख का तेरे, तोड़ कुछ भी नहीं
उसपे से ये हाय, हया, बेजोड़ इनसे कुछ भी नहीं।
भटक रहे हैं सभी तेरे तिलिश्म में
रहे हैं जुदा – जुदा, पर मंजिल कुछ नहीं।
टूटे कितने तारे इस वफाये-मोहब्बत में
मगर इस रात की सहर कुछ भी नहीं।
परमीत सिंह धुरंधर