शहर अब भी दुकानों में है
गावं अब भी खलिहानों में है.
तुम जिसे ढूंढते हो
वो दिल तो किताबों में है.
तुम जाने किन हसरतों के पीछे हो
अपना आशियाना लुटा के.
उन हसरतों का किनारा नहीं
वो तो खुद मझधारों में हैं.
बरसात की चंद बूंदों से
गावं में खुशबु बिखर जाती है.
ये शहर है जहाँ मिट्टी
अब बस बुतों में है.
परमीत सिंह धुरंधर