वो रूप अपना बिखेर कर बहार बन गयीं
हम दर्द को समेट कर दीवार बन गए.
वो इश्क़ में हमें एक रात दे गयीं
हम हमेट कर जिसे पहाड बन गए.
ना मिलती नजर तो, ना दीवाना होता
ये शहर हैं मेरा, मैं ना बेगाना होता।
किताबें चंद पढ़ कर वो बदलने लगे
निगाहों को फिर ना वो मयखाना मिला।
रहा दर्द दिल में सबब बनकर मेरे
फिर किसी और से मिलने का ना बहाना रहा.
किससे हां कहते दर्द-दिल अपना
दोस्तों का फिर वैसे ना जमाना रहा.
जाने दो जहां तक ये हवा जाए
ये घूँघट अब यूँ ना उठाया जाएगा।
समझ सको तो समझ लो कहानियाँ मेरी
मेरी खामोशियों में ये शहर अब गिना जाएगा।
परमीत सिंह धुरंधर