ए पिता तुम हो कहाँ, इस गगन के तले?
घिर गया हूँ चारों ओर से, मैं यहाँ बिन तेरे।
काँटे जो फूल बनकर मिलते थे
अब फूल भी शूल बन कर चुभने हैं लगे.
तेरा लाडला है धूल में धूसरित पड़ा
कब तक महेश्वर, ध्यान में रहोगे आँखें मूंदे?
उल्लास, उत्साह, उन्माद वो मेरा
हर प्रयास मेरा, अब एक बोझ सा लगे।
अधर-सुकोमल, वक्ष-सुडोल,
मेनका का आलिंगन भी विष सा लगे.
Rifle Singh Dhurandhar
अति भावपूर्ण । बधाई हो।
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dhanyabad!!
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