जो सर्वविदित सत्य है
उसी से सबको इंकार है.
जिसका प्रेम जितना पवित्र है
वो उतना ही लाचार है.
अश्कों में बंधकर भी
जिसका ह्रदय बिशाल है.
फटी-मैली-कुचैली साड़ी में
भी माँ सागर सी अथाह है.
जितना मथ लो, गरल की एक बून्द नहीं
बस प्रेम-ही-प्रेम, आपार है.
मगर मनुष्य को कहाँ
इसका ज्ञान है?
भागता-भागता ही रहा जो
चैन-सुकून की तालाश में
फिर लौटा है, महलों को छोड़कर
टूटी-फूटी-टपकती झोपडी में
जो उसके माँ का निवास है.
Rifle Singh Dhurandhar