इश्क़ दो तरह की होती
ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन
शीतकालीन:
नरम-नरम घास पे
ओस की बूंदें
उसपे अपने पाँव
सिरहन सी होती
मीठी लगती ताप.
ग्रीष्मकालीन:
छिटक-छिटक के
लालिमा उषा की
क्षितिज से बुलाती नाम
कलरव करते पक्षी
मीठी पेड़ों की छाँव।
काँधे पे हल लिए
खेत जाता किसान
दोपहर में नहा -खा
चारपाई पे लेता आराम।
शीतकालीन:
सुबह – शाम जलती अलाव
चूल्हे की अंगीठी
रात के पड़ाव पे
विरहा की तान
और गृहणियों के गान.
परमीत सिंह धुरंधर
अबकी बार सावन में आना।
गीली घास पर बैठेंगे दोंनो साथ ।।
सुनेंगे कोयल की वो मीठी आवाज़ ।
जिसे सुनकर तुम रोमांचित हो उठते हो मुझे सुनने को।।
गीली हवा में मिट्टी की सुंगन्ध।
तुम्हें मेरे स्पर्श को याद दिलाती होगी।।
फूलों की खुशबू तुम कहाँ भूल पाते होंगे ।
जिससे सदा सुगन्धित रहते थे केश मेरे।।
गर्म चाय की पियाली वाले हाथों से ।
वो छू लेना मेरे रुख़सारों (गाल)को ।।
तुम्हें बेचैन तो करता होगा मुझ से मिलने को।।।
अबकी बार सावन में आना ,
बैठेंगें दोनो साथ,
दरमियान सारे विद्वेष, सन्देह मिट जायें,
और हम फिर से हो जाएं एक।
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