मैं तराशा गया हूँ इस कदर दर्द में
ना कोई ख्वाब है ना कोई आशा मन में.
पंख तो फड़फड़ाते हैं हर घड़ी ही
पर ना आसमा है ना ही उड़ान नभ में.
फूल खिले हैं काँटों में, या कांटें ही साथ हैं
जिन्दी ऐसी उलझी, कुछ भी नहीं रहा बस में.
Rifle Singh Dhurandhar
मैं तराशा गया हूँ इस कदर दर्द में
ना कोई ख्वाब है ना कोई आशा मन में.
पंख तो फड़फड़ाते हैं हर घड़ी ही
पर ना आसमा है ना ही उड़ान नभ में.
फूल खिले हैं काँटों में, या कांटें ही साथ हैं
जिन्दी ऐसी उलझी, कुछ भी नहीं रहा बस में.
Rifle Singh Dhurandhar