मन कस्तूरी, जग दस्तूरी
रिश्तों में है अजब सी दूरी।
बेचैनी ही पाने की
पाकर दूर जाने की
उलझनों में रह गई
उलझ के प्रेम की डोरी।
सब चाहते है प्रेम सच्चा
कोई ना तोड़े विश्वास उनका
पर खुद पे जब आये तो
क्षण में चलते हैं दिलों पे छुरी।
ररुत आती है, जाती है
सावन-पतझड़, बसंत
के रूप लेकर
पर सबके चूल्हे में हैं
विरह की अनंत चिंगारी।
भूलकर सावन में संग झूले
झूलों की मीठी यादें
चला रहें हैं एक दूसरे पे
तेज-त्तेज कुल्हाड़ी।
First two lines were suggested by a friend.
Rifle Singh Dhurandhar