इस दीन की कुटिया पे, हे माँ आती रहो
बसंत-पंचमी पे ही नहीं, हर दिन आती रहो.
कुछ भी नहीं हैं माँ, जो चरणों में अर्पण कर दूँ,
पर शीश पे मेरे माँ, अपना हाथ रखती रहो.
धूल-धूसरित रहूं, या यूँ ही अध्-खिला
जैसे चाहो माता इस जग में रख लो हाँ.
पर कंठ पे मेरे, मस्तिक में मेरे,
माँ सवारी करती रहो.
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