अहिंसा परमो धर्म:


जब सारी दुनिया गाती है,
अहिंसा परमो धर्म:.
मैं तिब्बत – तिब्बत गाता हूँ,
अकेला रह जाता हूँ
भीड़ छट जाती है, धीरे – धीरे,
मैं अकेला ही गाता हूँ.
कम्युनिष्टय JNU के,
सारे मौन हो जाते हैं.
मूक – बधिर बन के, फिर वो
गांधी के बन्दर से बन जाते हैं.
जब कम्युनिष्टय JNU के चिल्लाते हैं,
फासीबाद से डरना नहीं।
तब मैं चंद्रशेखर -चंद्रशेखर चिल्लाता हूँ,
अकेला रह जाता हूँ.
आइसा-SFI सब भाग जाते हैं,
मैं अकेला ही चिल्लाता हूँ.

 

परमीत सिंह धुरंधर

JNU:पर ये तिब्बत क्या है?


मुझसे तुम क्या लोगे?
मेरे जिस्म के सिवा।
सिसकी तो बहुत हूँ मैं,
JNU के परिसर में.
पर कब ये सिसकियाँ चाहत और ख़ुशी से,
सामान्य दिनचर्या में बदल गयी,
मैं नहीं जानती।
सिरहन, उत्सुकता,
कब मेरे त्वचा की ज्ञानेन्द्रियों ने,
अनुभव करना बंद कर दिया?
मैं नहीं जानती।
जवानी का मतलब यहाँ संघर्ष नहीं,
उल्लास, और हमारे गगनभेदी नारे हैं.
हमारी आवाज, हमारी भीड़,
क्या बदलाव चाहती है?
मैं नहीं जानती।
भय- डर, दमन, निरंकुशता,
क्या है?
मैं नहीं जानती।
परिसर में आने के पहले के ज्ञान,
मैंने सारे यहाँ धो डाले।
यहाँ मिले ज्ञानों से मैंने,
अति-ब्रह्मिणवाद, बहुसंखयकवाद,
जाना है.
पर ये तिब्बत क्या है,
मैं नहीं जानती।
यहाँ कार्ल मार्क्स तो पढ़ते हैं सभी,
पर लोहिया कौन है?
मैं नहीं जानती।

 

परमीत सिंह धुरंधर