पाप


बचपन,
जो प्रगतिशीलता का विरोध करता है.
बचपन,
जो आधुनिकता का विरोध करता है.
बचपन,
जो, “मैं ही सबसे अच्छा हूँ”, में विश्वास रखता हो.
ऐसा बचपन जब जवानी में आता है,
तो पतन होता है.
यह पाप होता है.
जवानी,
जो अपने घर को टुटा-फूटा समझती हैं.
जवानी,
जो अपने इतिहास, साहित्य की निंदा करती हैं.
जवानी,
जो अपनी पत्नी को कुरूप और भोग्या समझती हैं.
ऐसी जवानी जब मस्तक पे छाती हैं,
तो पतन होता है.
यह पाप होता है.
बुढ़ापा,
जिसमे अपने किये पे पछतावा होता है.
बुढ़ापा,
जिसमे हर छाया में स्त्री का आभास होता है.
बुढ़ापा,
जिसमे ह्रदय में वासना का निवास होता है.
ऐसा बुढ़ापा जब शरीर पे आता है,
तो पतन होता है.
यह पाप होता है.

परमीत सिंह धुरंधर