जो इंसान हार कर जीवन से,
बस मुस्करा रहा है अपनी बेबसी पे,
देखता है ये जमाना अचरज से की क्या ,
छुपाया है इसने अपने झोले में?
आँखे घुरतीं है, लाखो निगाहें तरेरती है,
अनगिनत खामोश सवाल जब घेरते हैं,
तो हारा इंसान भागने लगता है जमाने से,
और पीछे – पीछे उसके, एक भीड़ चलती है,
मन में बेचैनी लिए की क्या,
छुपाया है इसने अपने झोले में?
पहले उसका प्यार छिना, फिर गरीब किया,
भूख से बदहाल करके, सड़को पे छोड़ दिया,
और आज एक झोले के पीछे, आज इस जाामने ने,
अपनी औरत, दौलत, सब छोड़ दिया,
अब प्यास जिस्म की नहीं, दौलत की नहीं,
इस बात की है, की क्या छुपाया है इसने अपने झोले में?
हारा इंसान भागता रहा, झोला फट गया,
चिथड़े – चिथड़े हो कर उड़ गया,
पर भीड़ बढ़ती रही, उमड़ती रही,
मन का बोझ बढ़ कर पहाड़ हो गया,
की आखिर क्या छुपाया था इसने अपने झोले में?
अंत में फिर हारकर हारा इंसान बैठ गया,
और बुद्ध बन गया,
और ज़माने की भीड़ बौद्ध बन गयी,
मगर खोज अब भी जारी है,
की क्या छुपा था उस झोले में?
परमीत सिंह धुरंधर