पिता से बढ़ के कोई परमात्मा नहीं,
इन चरणों के सिवा ये सर कहीं झुकता नहीं।
मैं अपनी तीरों से सृष्टि का संहार कर दूँ,
मुझे पिता के सिवा, कहीं कुछ भी दिखता नहीं।
तुम भूल गए भ्राता, कुल -संबंधी,
मैं इस जनम में ऐसा द्रोही तो नहीं।
काका श्री, तुम ज्ञानि हो समस्त वेदों को पढ़कर,
मगर मेरी नजरों में, ये पिता के चरणों की धूल भी नहीं।
मेरी जवानी चाहे मखमल पे फिसले,
मेरी जवानी चाहे काँटों पे बिखरे।
आखिरी क्षणों तक बस पिता से प्रेम करूँगा,
चाहे मोक्ष मिले या आत्मा भवसागर में भटके।
मेरी नजरों के सामने हो जाए लंका का पतन,
इस जीवन में ऐसा तो मेरे रहते होगा नहीं।
पिता से बढ़ के कोई परमात्मा नहीं,
इन चरणों के सिवा ये सर कहीं झुकता नहीं।
परमीत सिंह धुरंधर