मोहब्बत करें पनियाडीह से Harvard Medical School तक


आवो चलें मोहब्बत करें
उस दरिया के किनारे पे
जहां कृष्णा ने चुरा लिए थे
गोपियों के कपड़े।

आवो चलें मोहब्बत करें
हिन्द की उस सरहद पे
जिसे सींचा हैं
राजपूतों ने अपने रक्त से.

आवो चलें मोहब्बत करें
बिहार की उस धरती पे
जहाँ गुरु गोविन्द सिंह जी
अवतरित हुए
हिन्दू धर्म को बचाने।

आवो चलें मोहब्बत करें
पुणे शहर में
जहाँ प्रसिद्ध है अब भी
प्रोफेसर सीताराम के किस्से।

आवो चलें मोहब्बत करें
सिवान – छपरा की गलियों में
जहाँ गूजतें हैं आज भी
महेंद्र मिसिर – भिखारी के गानें।

आवो चलें मोहब्बत करें
पनियाडीह के खेतों में
जहाँ आज भी हरे – भरें हैं
धुरंधर सिंह के बगीचे।

आवो चलें मोहब्बत करें
Harvard Medical School में
जहाँ पागल है Crassa
प्यासा प्रेम में.

 

परमीत सिंह धुरंधर

गुरु गोबिंद सिंह जी


हिन्द की धरती पे जब उलझनों का दौर था
अस्त था सूरज और तिमिर घनघोर था.
सरहदों से अंदर तक आतंक का जोर था
अधर्म बलवान और धर्म कमजोर था.
एक नन्हे से बालक ने कहा पिता से
भय से बड़ा न कोई रोग है, न रोग था.

आतंक का मुकाबला अहिंसा तो नहीं
भय अगर व्याप्त है
पर्यावरण में किंचित भी
तो उसका समाधान मंत्रोचार और दया तो नहीं।
बलिदानों की इस धरती पर
यूँ समर्पण बस प्राणों के मोह में
एक कोढ़ है और कोढ़ था.

 

परमीत सिंह धुरंधर

तोमर – मृगनयनी


मृग से चंचल नयन तेरे
हम तोमर जिसकी प्यास रखते हैं.
हे मृगनयनी,
हम से क्या पूछती हो हमारा परिचय?
तोमर अपने पीछे अपना इतिहास रखते हैं.

बलखाती तुम्हारी कमर,
कहीं मोच ना खा जाए
अतः हे मृगनयनी
तोमर अपने ह्रदय में तुम्हे रखना चाहते हैं.

Dedicated to the Rajput queen Mrignayani.

परमीत सिंह धुरंधर

घी का लड्डू टेढ़ा ही सही


यूँ ही नहीं मुझे घमंड
अपनी जवानी का.
इस जवानी को सजाया है
बहनों ने अपनी राखी से.

यूँ ही नहीं मेरे चेहरे पे दर्प
राजपूत होने का.
इस विरासत को पाया है
मैंने अपने पिता से.

जिन्हे लगता है की मैं
टेढ़ा हूँ, उन्हें क्या पता?
घी का लड्डू टेढ़ा ही सही,
माँ ने गढ़ा है बड़े जतन से.

 

परमीत सिंह धुरंधर

एक रात के वफादार


दुकानों पे दुकानदार होते हैं
वस्तुओं के खरीदार होते हैं
जो रिश्ते निभा दे इस जीवन में
वही रिश्तेदार होते हैं.

बुढ़ापे में तो हर किसी के कष्ट है
जिनकी जवानी में कष्ट हो
वही गुनाहगार होते हैं.
धन्य हैं वो माता – पिता
जिनके बच्चे समझदार होते हैं.

मकानों में किरायेदार होते हैं
रातों के पहरेदार होते हैं
हुस्न से क्या रखते हो उम्मीदें
ये बस एक रात के वफादार होते हैं.

 

परमीत सिंह धुरंधर

पुरस्कार नहीं मिला तब से


बादळ कितने बरस – बरस के
भिंगों – भिंगों के रुला गए.
मगर प्रेम फिर वो मिला नहीं तब से
जब से तुम मुख चुरा गए.

वो तारीख फिर आयी है
वो ही दिन और रात वो ही लायी है.
सूरज भी वैसा ही प्रखर
और वही उसकी अरुणाई है.
चाँद मद्धम है
और वैसी ही उसकी अंगराई है.
मगर वो निंदिया नहीं आई तब से
जब से तुम मुख चुरा गए.
बादळ कितने बरस – बरस के
भिंगों – भिंगों के रुला गए.
मगर प्रेम फिर वो मिला नहीं तब से
जब से तुम मुख चुरा गए.

यादों के इस भंवर में
पल – पल हम अब भी उपलाते हैं.
असमंजस और असंभव के बीच
विवस हम नजर आते हैं.
जीवन में अब कुछ नहीं सिवा
अथक परिश्रम के अनंत तक.
मगर पुरस्कार नहीं मिला वैसा तब से
जब से पिता, तुम मुख चुरा गए.
बादळ कितने बरस – बरस के
भिंगों – भिंगों के रुला गए.
मगर प्रेम फिर वो मिला नहीं तब से
जब से तुम मुख चुरा गए.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मोहब्बत में बस राम का नाम लिखा है


मोहब्बत में सभी ने
बस राम का नाम लिखा है.
पिता के प्रेम में
जो वन चले गए.
पत्नी के प्रेम में
सागर बाँध गए.
भाई के प्रेम में
जो विकल उठे.
और प्रजा के प्रेम में
विरह में जल गए.
मोहब्बत में सभी ने
बस राम का नाम लिखा है.

गुरु के आदेश पे
शिव-धनुष तोड़ दिया।
पत्नी के आदेश पे
एक – पत्नी -व्रत का निर्वाह किया।
माँ के आदेश पे
अपना हक़ छोड़ दिया।
दोस्त की याचना पे
कलंक को शिरोधार्य किया।
मोहब्बत में सभी ने
बस राम का नाम लिखा है.

परमीत सिंह धुरंधर

15 अगस्त पे गौरेया बोली


मुझे पंक्षियों में
गोरैया बहुत पसंद है.
पर मैंने कभी ये जानने
का प्रयास नहीं किया
की गौरेया को क्या पसंद है?

ये मेरा अहम् था
या पौरष का दम्भ
मुझे नहीं मालुम।
पर कुछ था मेरे अंदर
जो कहता था की
गौरेया तो एक स्त्री है
स्त्री का परिचायक है
जो सूचक है
कमजोर और छोटे होने का.

मैं सोचता था
या मेरे अंदर का वो निराकार
अदृश्य परुष कहता था
की मैंने इसे पसंद कर लिया
ये तो इसी में खुश हो जायेगी
ख़ुशी से मर जायेगी।

आज १५ अगस्त पर मैंने जाने क्यों?
सोचा, चलो गौरेया से पूछ लें
की भला वो क्या सोचती है?
खुश है ना वो.
पूछना तो एक बहाना था
अपनी आत्मतृप्ति का
अपने दम्भ की नई सृष्टि का.

खैर, गौरेया से पूछा
कुछ पल की मौन दृष्टि के बाद
गौरेया बोली।
उसे कुछ पसंद करने की आज़ादी कहाँ?
कहाँ पुरुषों में?
पंक्षियों जैसी विविधता
कहाँ पुरुषों में
पंक्षियों जैसी सहनशीलता।
एक आह के साथ
गौरेया ने कहा
शायद सृष्टिकर्ता भी एक
पुरुष रहा होगा।

परमीत सिंह धुरंधर

शहीदे – आज़म भगत सिंह और दुल्हन


काट – काट दांत से
बेहाल कर रहे मुझे
१५ अगस्त को
साजन मेरे सेज पे.

क्या सम्भालूं मैं चुनर?
और क्या चोली के बटन?
तोड़ – तोड़ भेंक रहे
१५ अगस्त को
साजन मेरे सेज पे.

शर्म की बेड़ियों में
जकड़ा मेरा यौवन
तार – तार कर रहे
१५ अगस्त को
साजन मेरे सेज पे.

जोश है, उमंग है
ह्रदय है दोनों संग में
नया भविष्य गढ़ रहे
१५ अगस्त को
साजन मेरे सेज पे.

प्राचीन परम्पराओं
की पराधीनता के खिलाफ
शंखनाद कर रहे
१५ अगस्त को
साजन मेरे सेज पे.

नस – नस में विजलियाँ
अंग – अंग में रक्तचाप
क्षण – क्षण में भर रहे
१५ अगस्त को
साजन मेरे सेज पे.

 

परमीत सिंह धुरंधर

ताजमहल


गुलिस्तां में हो-हल्ला बहुत है
की वो मौन हो जाती हैं
एक पत्थर फेंक के.

अंदाजे – हुस्न का शिकवा मत करों
शौहर चुनेगीं वो किसी एक को
शहर के हर चूल्हे पे अपनी रोटी सेंक के.

राजनीति और मोहब्बत के चाल – ढाल एक से
वादे और नजर बदल जाती है
एक रात की भेंट से.

हुस्न के इरादों का अगर पता होता
ताजमहल नहीं बनाते मुमताज के
कब्र की रेत पे.

 

परमीत सिंह धुरंधर