JNU और लोहियावादी मैं


मेरे वामपंथ (साम्यबाद) और JNU के वामपंथ में वो ही अंतर है जो गांधी और सुभास बोस में था और है.
वो जहाँ सशस्त्र क्रांति की मांग करते हैं, पूंजीवाद के खिलाफ, हर शोषण के खिलाफ। वहीँ जाने किस मज़बूरी में गांधी के अहिंषा परमो धर्म: में अपनी आस्था की दुहाई भी देते हैं। ये उनकी मज़बूरी है या दोहरापन, नहीं मालुम, लेकिन लोहियावादी कभी मजबूर नहीं होते। और ये दुर्भाग्य है की वामपंथ के गढ़ JNU ने ना राममनोहर लोहिया को अपनाया ना लोहियावादी मुझे।
परमीत सिंह धुरंधर

मैं मजदूर था कभी


मैं मजदूर था कभी,
जब मेरे अपने खेत थे.
मैं मजदूर था कभी,
जब मेरे अपने बैल थे.
हाँ, मैं भी मजदूर था,
जब मेरे अपने बाग़ थे.
मैं मजदूर था कभी,
जब मेरी दुकानें,
मेरे खलिहान थे.
अब तो मैं बस एक बंजारा हूँ.
चूल्हा जलता था,
हाँ दिए की मद्धम रौशनी में.
रोटी पकती थी,
वो बंट जाती थी,
आते – आते अपनी थाली में.
मगर,
आती बड़ी मीठी नींद थी,
पछुआ के उस ताप में,
माँ के उस थाप में.
अब तो व्यंजनों का भण्डार है,
हर थाली में जैसे एक त्योंहार है.
मगर अब छोटी रातें,
और लम्बी थकान हैं.
मैं एक मजदूर था,
जब माँ सोती नहीं थी,
माँ, एक – एक रूपये का तह लगाती थी.
आज, मैं सिर्फ एक मजबूर हूँ,
जब तहखानों में रूपये है,
मगर माँ नहीं है,
और बीबी उठती नहीं है.

 

परमीत सिंह धुरंधर