मैं विष धारण कर लूंगा अपने कंठ में


अपने पिता के प्रेम में पुकारता हूँ प्रभु शिव तुम्हे,
मेरे पिता को लौटा दो,
मैं विष धारण कर लूंगा अपने कंठ में.
मुझे भय नहीं मौत का, ताप का,
बस मुझे गोद दिला दो फिर वही,
मैं विष धारण कर लूंगा अपने कंठ में.

 

परमीत सिंह धुरंधर

मठ्ठा सैंया


काट ल दही परके छाली सैंया,
ना त महला पे मिली मठ्ठा सैंया।
छोड़ द सबके दुआर अगोरल,
भूल जा राति के बथानी में पसरल।
लूट जाइ थाती त बस बाची टूटल ठाटी सैंया।

 

परमीत सिंह धुरंधर

छोटा शहर है, न छोड़ा कीजिये


रिश्तों को ऐसे न तोडा कीजिये,
छोटा शहर है, न छोड़ा कीजिये।
बड़े शहर में बिखर जाओगे,
भीड़ है इतनी की पिछड़ जाओगे।
फिर याद आएगी मेरी चुनरियाँ।
रिश्तों को ऐसे न तोडा कीजिये,
छोटा शहर है, न छोड़ा कीजिये।
अभी पैसों की चाहत है, समझ नहीं पाओगे,
काँटों में फंस के, उलझ जाओगे।
फिर याद आएगी मेरी नगरिया।
रिश्तों को ऐसे न तोडा कीजिये,
छोटा शहर है, न छोड़ा कीजिये।
यहाँ माँ है, ममता है, हैं बगीचे हरे- भरे,
जब ठोकरों में होगी तुम्हारी जिंदगी,
याद आएगी तब मेरी नजरिया।
रिश्तों को ऐसे न तोडा कीजिये,
छोटा शहर है, न छोड़ा कीजिये।

 

परमीत सिंह धुरंधर

मोहब्बत में अपने ये रोजे


किस्से तो कई हैं,
बंद दीवारों के अंदर।
हौसलें नहीं है,
की कोई उनको खुले आसमान के तले पढ़े.
मेरी मोहब्बत कुछ इस कदर हैं उनसे,
की पलके बिछा दी,
उन्होंने जहाँ – जहाँ अपने कदम रखे.
जा चुन ले किसी को भी जमाने में,
मुझे छोड़कर।
हम फिर भी रखेंगे,
तेरी मोहब्बत में अपने ये रोजे।

 

 

 

परमीत सिंह धुरंधर

इसलिए हमने पटना को राजधानी बना लिया


दिल्ली दूर थी,
इसलिए हमने पटना को राजधानी बना लिया.
सुकून तो गमे-शराब,
और हुश्ने – शबाब दोनों में हैं.
मेरी किस्मत ख़राब थी,
इसलिए खाके-राख पे एक दीप जला दिया.
गरीबों और औरतों के लिए लड़ने वालो ने,
कुछ इस कदर उनकी मज़बूरी और बेबसी को छला हैं,
की दूसरों की औरतों की करवा-चौथ के बेड़िया तोड़कर,
उनके जिस्म को अपने नीचे बिछा दिया।
दिल्ली दूर थी,
इसलिए हमने पटना को राजधानी बना लिया.

 

 

 

परमीत सिंह धुरंधर

वो मेरे अंगों से खेले


वो मेरे अंगों से खेले,
तो हम समझें की आईने में कमी क्या है.
जमाना कहता है की,
करवा – चौथ मेरे पाँवों की बेड़ियाँ हैं.
वो क्या समझेंगे,
इन बेड़ियों को पहन के मैंने पाया क्या है.
आवो,
कभी सुन ले – सुना ले एक दूसरे को,
की तुमने औरत को हर विस्तर पे सुला के,
उसके संग सो के,
किन उचाईयों पे पहुंचा दिया.
और मैं एक व्रत कर करवा – चौथ का,
कौन सा एहसास जी लिया है.

 

 

 

परमीत सिंह धुरंधर

निहारती ही रही आईने को उम्र भर


तुम कभी समझ ही नहीं सके हमारे रिश्ते को दिल से,
तुम चाहे जितना भी पढ़ लो किताबें अपने जीवन में.
मुझे ये गम नहीं की हम एक साथ न रह सके,
तुमने कभी चाहा ही नहीं की हम साथ रहें खुशियां बाँट के.
तुम निहारती ही रही आईने को उम्र भर,
कभी खवाब संजोया ही नहीं आँखों को मूंद के.
लाखों हैं यहाँ तुम्हारे जोबन के गिरफ्त में,
मगर तुम अब भी नहीं हो किसी एक के भी वफाये – जहन में.

 

परमीत सिंह धुरंधर

बक्षों पे उठाया नहीं जाता


हुजूर, आपसे अब यहाँ उम्र का गुजर नहीं होता,
कुछ मिले हमें भी अब की यूँ तन्हा इसारा नहीं होता।
ढलें हैं चेहरे ही बस, मंसूबें अब भी जवानी की मौजों में हैं,
यूँ घूँघट में अब सब कुछ मुझसे बांधा नहीं जाता।
कब तक आईना दिखलाये मुझे भंवर मेरी योवन का,
अब आँचल का भार यूँ बक्षों पे उठाया नहीं जाता।

 

परमीत सिंह धुरंधर

माँ की नयी सहेली


माँ, देखो कैसे,
अपनी बच्ची की जुल्फों में,
कंघी फेर रही है.
माँ, देखो कैसे,
अपनी बच्ची को सजा रही है.
माँ, भूल गयी है खाना,
माँ, भूल गयी है पीना।
जब से माँ के जीवन में,
एक बच्ची आयी है.
हाथों के जलने का,
अब पता नहीं चलता।
ना सांझ के ढलने पे,
किसी के आने का इंतज़ार ही रहता।
माँ, फिर से हो गयी है ,
गावँ की अल्हड एक छोरी।
जब से माँ के जीवन में,
ये नयी सहेली आयी है.

Based on true incident.

परमीत सिंह धुरंधर