रामचन्द्र जी कह गए सिया से, एक दिन ऐसा कलजुग आएगा।
वक्षों पे खेलेंगे कुत्ते,और कुत्तों पे वक्ष होगा।
नारी-हितेषी भटकेगा गलियों में ठोकर खाते,
और जो दलेगा नारी को, वो उसकी बाहों में होगा।
परमीत सिंह धुरंधर
रामचन्द्र जी कह गए सिया से, एक दिन ऐसा कलजुग आएगा।
वक्षों पे खेलेंगे कुत्ते,और कुत्तों पे वक्ष होगा।
नारी-हितेषी भटकेगा गलियों में ठोकर खाते,
और जो दलेगा नारी को, वो उसकी बाहों में होगा।
परमीत सिंह धुरंधर
कुत्तों – कमीनों की भीड़ कैसी?
Khattri, Crassa, आफताब जैसी।
किसी की लगा दें,
किसी की सुलगा से.
पल भर में ही,
किसी की भी दुनिया हिला दें.
इनके आगे तो सबकी है फट्टी पड़ी.
कुत्तों – कमीनों की भीड़ कैसी?
Khattri, Crassa, आफताब जैसी।
कितनो का मान धोया,
कितनो का इंद्रा रोया।
कितने चौबों को,
दुबे बना के छोड़ दिया।
किसी की शान्ति, किसी की भ्रान्ति,
इनके आगे तो है मिटी सबकी।
कुत्तों – कमीनों की भीड़ कैसी?
Khattri, Crassa, आफताब जैसी।
परमीत सिंह धुरंधर
कुत्ते भी क्या – क्या चमत्कार करते हैं!
कोई चुम रहा है उनकी पाँवों को,
तो कोई वक्षों से लगा बैठा है.
अब किस्मत और मौसम,
दोनों कुत्तों के साथ है शहर में.
ठण्ड भरे इस मौसम में,
मैं शायर बनके रोता हूँ,
और कोई उन्हें अपनी बाहों,
तो कोई वक्षों पे सुलाता है.
परमीत सिंह धुरंधर
कुत्ते कुछ इस कदर भोकें,
बिल्लियाँ सहम गयी सारे सहर में.
और खेल भी देखो जनाब हड्डियों का,
उसने इस कदर फेंकी हड्डियां,
की कुत्तों की एक भीड़ लग गयी शहर में.
परमीत सिंह धुरंधर
ससुरा पी के हमके समझे आपन लुगाई राजा जी,
जल्दी पकड़ के राजधानी घरे आ जाई राजा जी.
कभी मांगें मीट, कभी मछली,
कभी कहेला बनाव मसाला वाला सब्जी,
घरी – घरी हमके दौरावे चुहानी राजा जी,
जल्दी पकड़ के राजधानी घरे आ जाई राजा जी.
ससुरा पी के हमके समझे आपन लुगाई राजा जी,
जल्दी पकड़ के राजधानी घरे आ जाई राजा जी.
परमीत सिंह धुरंधर
शेर अब शंख्या में काम रह गए हैं,
क्यों की हुस्न वाले अब सियार चुन रहे हैं.
जो चूस रहे हैं खून अपनी घरवाली का,
दिल्लीवाले उसे अपना मसीहा चुन रहे हैं.
वो रोता है ऐसे भ्रष्टाचार की दुहाई दे कर,
जैसे पति उसका कोई सौतन चुन रहा है.
परमीत सिंह धुरंधर
जब सिंह करता है गर्जना,
तो जग करता है भर्त्स्ना,
तो क्या सिंह अपनी चाल बदल ले?
तो क्या सिंह अपना राज छोड़ दे?
सिंह को जरुरत नहीं, सियारों के संख्या की,
सिंह को चाहत नहीं, कुत्तों के भीड़ की,
अकेला है सिंह वन में,
तो क्या लड़ना छोड़ दे?
बूढ़ा है सिंह तन से,
तो क्या भिड़ना छोड़ दे ?
सिंह की हुंकार वही,
ललकार वही,
एक दिन होगी सिंह की,
जयजयकार यहीं,
एक दिन होगा सिंह का,
साम्राज्य यहीं।
परमीत सिंह धुरंधर
तू गावं की छोरी, मैं शहर का छोरा,
आज खेले हम सिलवट – लोढ़ा।
तू डाल दे हल्दी, मैं मार दूँ हथोड़ा,
रंग खिलेगा तब चोखा – चोखा।
खेत हैं तेरे सारे धान वाले,
उसमे उपजा रहा है गेहूं, बाप तेरा,
अकल है जिसमे बस थोड़ा – थोड़ा।
नयन तेरे हैं सागर से,
मैं भीं उसमे एक पल बिता लूँ.
समझा दे अपने घरवालों को,
ना छेड़ें इसको,
वरना नासूर बन जाएगा ये फोड़ा।
परमीत सिंह धुरंधर
जी रहा हूँ इस शहर में बस तेरा जिस्म देख के,
जिसपे रेशम का दुप्पटा फिसलता बहुत है.
लूटा दी अपनी सारी खुशियाँ,
परदेस में जिस दौलत को कमाने में.
उसे कमाने के बाद हम ये समझे,
की माँ के हाथों में दौलत बहुत है.
परमीत सिंह धुरंधर
हम लूटा दे अपनी जिंदगी जिन आँखों पे.
उन आँखों को शहर की रौशनी भायी है.
हम बुझाएं भी तो ये चिराग कैसे,
इसी की रोसनी में वो नजर आई हैं.
परमीत सिंह धुरंधर